लेख-निबंध >> विषमता एक पुनर्विवेचन विषमता एक पुनर्विवेचनअमर्त्य सेन
|
8 पाठकों को प्रिय 121 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन की एक दार्शनिक रचना...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एक पुनर्विचन
यह पुस्तक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन की एक
दार्शनिक रचना है। उनकी कई एक विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकों के बीच इस रचना का
शुमार उनकी सोच की कुंजी के बतौर होता है। निस्संदेह यह प्रोफेसर सेन की
कुछ सर्वाधिक कठिन पुस्तकों में से भी एक है। कठिन यह इस अर्थ में नहीं है
कि कोई लंबी-चौड़ी उलझी हुई लफ़्फ़ाज़ी इसमें की गई है, बल्कि इस अर्थ में
कि स्वतंत्रता, समानता, विविधता आदि अवधारणाओं का प्रयोग यहाँ इतने व्यापक
संदर्भों में हुआ है कि उनका आदमी होने में किसी को भी काफी मेहनत करनी
पड़ेगी।
समानता और स्वतंत्रता के बीच का विवाद इस सदी का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक विवाद रहा है। शीतयुद्ध के चार दशकों ने तो इसी विश्व राजनीति के केंद्रीय विवाद का ही रूप दे दिया था। इस पुस्तक में प्रोफेसर सेन इस विवाद की तह में जाते हैं। समानतावादियों और स्वतंत्रतावादियों के मतों का विश्लेषण करते हुए प्रोफेसर सेन यह सिद्ध करते हैं कि इन दोनों के बीच विवाद दरअसल इस बात पर है ही नहीं कि मनुष्यों के बीच समानता होनी चाहिए या नहीं। विवाद तो इस बात पर है कि मनुष्यों के बीच समान्ता किस चीज की होनी चाहिए।
इस केंद्रीय प्रश्न ‘समानता किस चीज की ?’ का जवाब खोजने के क्रम में प्रोफेसर सेन मनुष्यों के भारी विविधताओं को केन्द्र में रखते हैं। अपंग व्यक्ति, गर्भवती स्त्री, कालाजार प्रभावित इलाकों में रखते हैं। अपंग व्यक्ति, गर्भवती स्त्री, कालाजार प्रभावित इलाकों में रहने वाले आदिवासी या स्वेच्छ या सारी सुख-सुविधाओं का त्याग कर जनता की सेवा करने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता- सभी उनकी नजर में रहते हैं और मनुष्यों का कुछ खास भला होते नहीं देखते। उनका केंद्रीकरण आमतौर पर भिन्न-भिन्न लक्ष्यों के लिए प्रयास करने की मानवीय स्वतंत्रता पर और खासतौर पर विविध मूल्यों को अर्जित करने की अलग-अलग व्यक्तियों की सामर्थ्य पर है।
स्वतंत्रता और समानता को लेकर आपके विचार चाहे जो भी हों और प्रोफेसर सेन की विचारों से उनकी कोई संगति बैठती हो या न बैठती हो पर इससे कोई संदेह नहीं कि इस विश्लेषण से गुजरने के बाद आपकी सोच का दायरा बढ़ चुका होगा।
समानता और स्वतंत्रता के बीच का विवाद इस सदी का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक विवाद रहा है। शीतयुद्ध के चार दशकों ने तो इसी विश्व राजनीति के केंद्रीय विवाद का ही रूप दे दिया था। इस पुस्तक में प्रोफेसर सेन इस विवाद की तह में जाते हैं। समानतावादियों और स्वतंत्रतावादियों के मतों का विश्लेषण करते हुए प्रोफेसर सेन यह सिद्ध करते हैं कि इन दोनों के बीच विवाद दरअसल इस बात पर है ही नहीं कि मनुष्यों के बीच समानता होनी चाहिए या नहीं। विवाद तो इस बात पर है कि मनुष्यों के बीच समान्ता किस चीज की होनी चाहिए।
इस केंद्रीय प्रश्न ‘समानता किस चीज की ?’ का जवाब खोजने के क्रम में प्रोफेसर सेन मनुष्यों के भारी विविधताओं को केन्द्र में रखते हैं। अपंग व्यक्ति, गर्भवती स्त्री, कालाजार प्रभावित इलाकों में रखते हैं। अपंग व्यक्ति, गर्भवती स्त्री, कालाजार प्रभावित इलाकों में रहने वाले आदिवासी या स्वेच्छ या सारी सुख-सुविधाओं का त्याग कर जनता की सेवा करने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता- सभी उनकी नजर में रहते हैं और मनुष्यों का कुछ खास भला होते नहीं देखते। उनका केंद्रीकरण आमतौर पर भिन्न-भिन्न लक्ष्यों के लिए प्रयास करने की मानवीय स्वतंत्रता पर और खासतौर पर विविध मूल्यों को अर्जित करने की अलग-अलग व्यक्तियों की सामर्थ्य पर है।
स्वतंत्रता और समानता को लेकर आपके विचार चाहे जो भी हों और प्रोफेसर सेन की विचारों से उनकी कोई संगति बैठती हो या न बैठती हो पर इससे कोई संदेह नहीं कि इस विश्लेषण से गुजरने के बाद आपकी सोच का दायरा बढ़ चुका होगा।
समानता किस चीज की ?
यहाँ मेरा तर्क है कि समानता के विश्लेषण और आकलन का केंद्रीय प्रश्न है
‘समानता किस चीज की ?’ मेरा कहना यह भी है कि सामाजिक
व्यवस्था की नैतिकता के प्रति जो भी दृष्टिकोण समय की कसौटी पर खरे उतरे
हैं, लगभग उन सबकी एक साझी विशेषता यह है कि वे किसी-न-किसी वस्तु की
समानता की माँग करते रहे हैं- ऐसी किसी वस्तु की जो उस विशेष सिद्धांत में
एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। केवल समान-आयवादी ही (अगर इस शब्द के
प्रयोग की इजाजत हो तो) समान आयों की और समान-कल्याणवादी के सामने स्तरों
की माँग नहीं करते, बल्कि शास्त्रीय किस्म के उपयोगितावादी भी सभी को
उपयोगिताओं को समान भारमान देने का आग्रह करते हैं और शुद्ध स्वाधीनतावादी
भी अधिकारों और स्वाधीनताओं की एक पूरी श्रेणी को लेकर समानता का तकाजा
करते हैं। किसी-न-किसी बुनियादी अर्थ में वे सभी
‘समानतावादी’
हैं जो किसी ऐसी वस्तु की समानता के जोरदार पक्षधर हैं जो हरेक को प्राप्त
होनी चाहिए और जो खुद उनके अपने विशेष दृष्टिकोण के लिए नाजुक अहमियत रखती
है। संघर्ष को समानता के ‘पक्ष’ और
‘विपक्ष’ का
संघर्ष समझना (जैसाकि ग्रंथों में अकसर पेश किया जाता है) किसी के किसी
केन्द्रीय तत्त्वों को अनदेखा करने के बराबर होगा।
मेरा तर्क यह भी है किसी महत्त्वपूर्ण अर्थ में समानतावादी होने की यह साझी विशेषता किसी-न-किसी स्तर पर हरेक संबद्ध व्यक्ति के प्रति समान चिंता की आवश्यकता से जुड़ी हुई है। उसके अभाव में किसी भी प्रस्ताव की समाजाकि विश्वसनीयता जाती रहेगी।
मेरा तर्क यह भी है किसी महत्त्वपूर्ण अर्थ में समानतावादी होने की यह साझी विशेषता किसी-न-किसी स्तर पर हरेक संबद्ध व्यक्ति के प्रति समान चिंता की आवश्यकता से जुड़ी हुई है। उसके अभाव में किसी भी प्रस्ताव की समाजाकि विश्वसनीयता जाती रहेगी।
केन्द्रीय समानता और व्युत्पन्न समानता
प्रश्न ‘समानता किस चीज की ?’ की केन्द्रीय भूमिका यह
संकेत
देती है कि विभिन्न धाराओं के विवादों को हम इसी आधार पर समानता की माँग
जानी चाहिए। क्रिया किस चीज को मानते हैं जिसके आधार पर समानता की माँग
जानी चाहिए। फिर यही माँगें दूसरे सामाजिक निर्णयों की प्रकृति को
मर्यादित करती हैं। एक चर (वैरिएबुल)* के आधार पर समानता की माँग का मतलब
यह होता है कि वह सिद्धांत-विशेष किसी दूसरे चर के सिलसिले में विषमतावादी
हो सकता है क्योंकि दोनों में विषमतावादी हो सकता है क्योंकि दोनों
परिप्रेक्ष्यों के बीच टकराव ऐन मुमकिन है।
मिसाल के लिए बहुत सारी वस्तुओं पर समान अधिकारों की माँगे करने वाला स्वाधीनतावादी अगर अपने विचारों के प्रति ईमानदार है तो वह आयों की समानता पर जोर नहीं दे सकता। इसी तरह उपयोगिता की हर इकाई के लिए समान भगवान* की माँग करने वाला उपयोगितावादी अगर अपने विचारों के प्रति ईमानदार है तो वह स्वतंत्रताओं के अधिकारों की भी समानता का तकाजा नहीं कर सकता है। (ठीक इसी कारण से वह विभिन्न व्यक्तियों को प्राप्त उपयोगिताओं के समग्र स्तरों की समानता का आग्रह भी नहीं कर सकता।) जिसे हम ‘केंद्रीय सामाजिक कार्यकलाप समझते हैं उसमें समानता की इच्छा करने वालों के साथ हमें दूरस्थ ‘परिधियों’ पर विषमता को भी स्वीकार करना पड़ता है। विवादों का विषय अंतत: केंद्रीय सामाजिक व्यवस्था का निश्चय होता है।
मिसाल के लिए बहुत सारी वस्तुओं पर समान अधिकारों की माँगे करने वाला स्वाधीनतावादी अगर अपने विचारों के प्रति ईमानदार है तो वह आयों की समानता पर जोर नहीं दे सकता। इसी तरह उपयोगिता की हर इकाई के लिए समान भगवान* की माँग करने वाला उपयोगितावादी अगर अपने विचारों के प्रति ईमानदार है तो वह स्वतंत्रताओं के अधिकारों की भी समानता का तकाजा नहीं कर सकता है। (ठीक इसी कारण से वह विभिन्न व्यक्तियों को प्राप्त उपयोगिताओं के समग्र स्तरों की समानता का आग्रह भी नहीं कर सकता।) जिसे हम ‘केंद्रीय सामाजिक कार्यकलाप समझते हैं उसमें समानता की इच्छा करने वालों के साथ हमें दूरस्थ ‘परिधियों’ पर विषमता को भी स्वीकार करना पड़ता है। विवादों का विषय अंतत: केंद्रीय सामाजिक व्यवस्था का निश्चय होता है।
अपरिहार्य माँगें और गौण विशेषताएँ
वास्तव में प्रश्न ‘समानता किस चीज की ?’ के उत्तर
दिए जाते
हैं वे ही सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न नैतिक सिद्धांतों के वर्गीकरण के
आधार भी होते हैं। वर्गीकरण का यह सिद्धान्त प्रत्येक दृष्टांत में यह
स्पष्ट करता है कि अपरिहार्य विशेषताएँ कौन-कौन सी हैं और कौन
से
संबंध महज गौण या आकस्मिक हैं। मिसाल के लिए एक स्वाधीनतावादी इसी तकाजे
को केंद्रीय समझता है। कि वैयक्तिक स्वाधीनताओं की किसी विशेष श्रेणी पर
सबका समान अधिकार हो। तो फिर एक स्वाधीनतावादी के रूप में वह आयों की
समानता पर एतराज नहीं करेगा, बशर्ते कि कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण
ऐसी समानता प्राप्त हो सके। लेकिन अगर परिस्थितियाँ भिन्न हों तो वह
स्वाधीनताओं की समानता का पक्ष लेगा, न कि आयों की परिस्थितिजन्य समानता
का।
इस सिलसिले में विलर्ड क्वाइन ने हाल ही में मुझे सुझाव दिया कि मैं इन दो के बीच तुलना के प्रायस करूँ : (1) सामाजिक व्यवस्था के नीतिशास्त्र के लिए वर्गीकरण का वह सिद्धांत जो उन समानताओं पर आधारित है जिनको (वास्तविक संबंधों के रूपांतरण की दशा में) बचा लिया जाता है; और (2) वर्गीकरण के वे सिद्धांत जो
———————————————————————————
* तारांकित तथा अन्य परिभाषिक शब्दों के लिए देखें ‘अनुवादक की ओर से’।
फेलिक्स क्लाइन के ज्यामितिक संश्लेषण प्रयास में (उनकी रचना एर्लांगेर प्रोग्राम में) प्रयुक्त हुए हैं और जिनका आधार किसी अंतराल की वे विशेषताएँ हैं जो रूपांतरणों के किसी विशेष समूह के लिए अपरिहार्य हैं। मेरा खयाल है कि यहाँ एक महत्त्वपूर्ण सामान्य संबंध पाया जाता है जो काफी ज्ञानवर्धक साबित हो सकता है, हालाँकि मैंने प्रस्तुत पुस्तक में इस संबंध की छानबीन नहीं की है।
इस सिलसिले में विलर्ड क्वाइन ने हाल ही में मुझे सुझाव दिया कि मैं इन दो के बीच तुलना के प्रायस करूँ : (1) सामाजिक व्यवस्था के नीतिशास्त्र के लिए वर्गीकरण का वह सिद्धांत जो उन समानताओं पर आधारित है जिनको (वास्तविक संबंधों के रूपांतरण की दशा में) बचा लिया जाता है; और (2) वर्गीकरण के वे सिद्धांत जो
———————————————————————————
* तारांकित तथा अन्य परिभाषिक शब्दों के लिए देखें ‘अनुवादक की ओर से’।
फेलिक्स क्लाइन के ज्यामितिक संश्लेषण प्रयास में (उनकी रचना एर्लांगेर प्रोग्राम में) प्रयुक्त हुए हैं और जिनका आधार किसी अंतराल की वे विशेषताएँ हैं जो रूपांतरणों के किसी विशेष समूह के लिए अपरिहार्य हैं। मेरा खयाल है कि यहाँ एक महत्त्वपूर्ण सामान्य संबंध पाया जाता है जो काफी ज्ञानवर्धक साबित हो सकता है, हालाँकि मैंने प्रस्तुत पुस्तक में इस संबंध की छानबीन नहीं की है।
मानवीय विविधता और असंबदंध समानताएँ
व्यावहारिक स्तर पर प्रश्न ‘समानता किस चीज की ?’ का
महत्त्व
मानव की वास्तविक विविधता की देन है, और इसीलिए एक चर के आधार पर समानता
की माँग, सिर्फ सिद्धांत में नहीं, बल्कि व्यवहार में भी, किसी और चर के
आधार पर समानता की माँग से टकराती हैं। अपनी आंतपिक विशेषताओं (जैसे आयु,
लिंग, सामान्य, योग्यताओं, विशेष वस्तुओं के स्वामित्व, सामाजिक
पृष्ठभूमियों, परिवेशजन्य स्थितियों आदि) के मुआमले में भी हमारे बीच भारी
विविधताएँ मौजूद हैं। ठीक यही विविधता है जिसके कारण एक क्षेत्र में
समानता का आग्रह करते हुए हमें किसी और क्षेत्र में समानता की माँग को
अस्वीकार करना पड़ता है।
इस तरह प्रश्न ‘समानता किस चीज की ?’’ के तात्त्विक महत्त्व का संबंध व्यापक मानवीय विविधता के अनुभवसिद्ध तथ्य से है। समानता की जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक-पड़ताले पहले से मौजूद एकरूपता की मान्यता से शुरू होती हैं (जिसमें यह मान्यता भी शामिल हैं कि ‘सभी मनुष्य समान पैदा हुए हैं’), वे समस्या के एक अहम पहलू को समझने से वंचित रहती हैं। मानव विविधता कोई दोयज दर्जे की समस्या नहीं है (कि उसे अनदेखा कर दिया जाए; उसे ‘बाद में कभी’ देख लिया जाए); यह समानता में हमारी रुचि का एक बुनियादी पहलू है।
इस तरह प्रश्न ‘समानता किस चीज की ?’’ के तात्त्विक महत्त्व का संबंध व्यापक मानवीय विविधता के अनुभवसिद्ध तथ्य से है। समानता की जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक-पड़ताले पहले से मौजूद एकरूपता की मान्यता से शुरू होती हैं (जिसमें यह मान्यता भी शामिल हैं कि ‘सभी मनुष्य समान पैदा हुए हैं’), वे समस्या के एक अहम पहलू को समझने से वंचित रहती हैं। मानव विविधता कोई दोयज दर्जे की समस्या नहीं है (कि उसे अनदेखा कर दिया जाए; उसे ‘बाद में कभी’ देख लिया जाए); यह समानता में हमारी रुचि का एक बुनियादी पहलू है।
स्वतंत्रताओ और सामर्थ्यों पर ध्यान
पुस्तक का आरंभ इन्हीं तर्कों, उनको प्रस्तुत करने के कारणों और उनके
निहितार्थों से होता है। (इन मुद्दे को अध्याय 1 में उठाया गया है।) बाकी
किताब विश्लेषण की इसी राह पर आगे बढ़ती है, और मैं समानता की सामान्य
प्रकृति की विवेचना के बाद क्रमश: आगे बढ़ते हुए प्रश्न ‘समानता
किस
चीज की ?’ का उत्तर देने के एक विशेष तरीके की खोजबीन में
निकलता
हूँ।
यह विशेष दृष्टिकोण उन मूल्यवान प्रकार्यों को पाने की सामर्थ्य पर ध्यान केन्द्रित करता है जो हमारे विशेष तरीके की खोजबीन में निकलता हूँ।
यह विशेष दृष्टिकोण उन मूल्यवान प्रकार्यों को पाने की सामर्थ्य पर ध्यान केंद्रित करता है जो हमारे जीवन के घटक हैं। यह और भी सामान्य स्तर पर उन उद्देश्यों को पूरा करने की स्वतंत्रता पर केंद्रित है जिनको हम कुछ कारणों से मूल्यवान समझते हैं। (सच तो यह है कि एक चरण में पुस्तक को ‘समानता और स्वतंत्रता’ का शीर्षक तक दिया गया था।) मैंने केंद्रीय प्रश्न का उत्तर देने के दूसरे तरीकों और इस दृष्टिकोण के बीच का अंतर स्पष्ट किया है, और इसके लिए उपयोगितावाद और स्वाधीनतावाद से लेकर जॉन राउल्स के ‘न्याय बतौर निष्पक्षता’ के सिद्धांत’ तक अनेक सिद्धांतों की विवेचना की है। दरअसल बौद्धिक दृष्टि से मैं बिलाशक जॉन राउल्स का सर्वाधिक ऋणी हूँ, राउल्स की तर्कपद्धति कुछ हद तक मेरी मार्गदर्शक भी रही है। यहाँ तक कि जहाँ मैंने किसी अन्य दिशा में भी कदम बढ़ाया है (जैसे मैंने स्वतंत्रताओं के परिणाम पर अधिक ध्यान दिया है, बनिस्बत उन साधनों के, जिनको राउल्स ‘प्राथमिक वस्तुएँ कहते हैं), वहाँ भी मेरा फैसला काफी हद तक राउल्स के सिद्धांत की प्रत्यक्ष समालोचना पर आधारित है।
यह विशेष दृष्टिकोण उन मूल्यवान प्रकार्यों को पाने की सामर्थ्य पर ध्यान केन्द्रित करता है जो हमारे विशेष तरीके की खोजबीन में निकलता हूँ।
यह विशेष दृष्टिकोण उन मूल्यवान प्रकार्यों को पाने की सामर्थ्य पर ध्यान केंद्रित करता है जो हमारे जीवन के घटक हैं। यह और भी सामान्य स्तर पर उन उद्देश्यों को पूरा करने की स्वतंत्रता पर केंद्रित है जिनको हम कुछ कारणों से मूल्यवान समझते हैं। (सच तो यह है कि एक चरण में पुस्तक को ‘समानता और स्वतंत्रता’ का शीर्षक तक दिया गया था।) मैंने केंद्रीय प्रश्न का उत्तर देने के दूसरे तरीकों और इस दृष्टिकोण के बीच का अंतर स्पष्ट किया है, और इसके लिए उपयोगितावाद और स्वाधीनतावाद से लेकर जॉन राउल्स के ‘न्याय बतौर निष्पक्षता’ के सिद्धांत’ तक अनेक सिद्धांतों की विवेचना की है। दरअसल बौद्धिक दृष्टि से मैं बिलाशक जॉन राउल्स का सर्वाधिक ऋणी हूँ, राउल्स की तर्कपद्धति कुछ हद तक मेरी मार्गदर्शक भी रही है। यहाँ तक कि जहाँ मैंने किसी अन्य दिशा में भी कदम बढ़ाया है (जैसे मैंने स्वतंत्रताओं के परिणाम पर अधिक ध्यान दिया है, बनिस्बत उन साधनों के, जिनको राउल्स ‘प्राथमिक वस्तुएँ कहते हैं), वहाँ भी मेरा फैसला काफी हद तक राउल्स के सिद्धांत की प्रत्यक्ष समालोचना पर आधारित है।
पद्धतिशास्त्रीय और तात्त्विक दावे
इसलिए पुस्तक में विषमता संबंधी मुद्दों की विवेचना के लिए एक सामान्य
पद्धतिशास्त्रीय (मेथडोलालाजिकल) दृष्टिकोण का विकास भी किया गया है, तथा
सामाजिक व्यवस्थाओं का आकलन कैसे किया जाए, इसके बारे में एक विशेष
तात्त्विक दृष्टिकोण (सब्स्टैंटिव एप्रोच) की खोजबीन भी की गई है। पुस्तक
की प्रस्तावना (‘सवाल और मुद्दे’) में मैंने पुस्तक
में
प्रस्तुत विवेचना के प्रमुख दिशासूत्रों को समेटने की कोशिश की है।
कुज्नेत्स व्याख्यान और अन्य संपर्क
प्रस्तुत पुस्तक साइमन कुज्नेत्स स्मृति व्याख्यानों पर आधारित है दो
मैंने अप्रैल 1988 में येल विश्विद्यालय में दिए थे। मैं इकानामिक ग्रोथ
सेंटर और इसके निदेशक पॉल शुल्ज का बहुत आभारी हूँ जिन्होंने मुझे
निमंत्रित किया, मेरा सत्कार किया और मुझे बौद्धिक प्रेरणा दी। आर्थिक जगत
की पद्धति के बारे में हम जो कुछ जानते हैं उसका काफी कुछ भाग साइमन
कुज्नेत्स की कृतियों से गहराई तक प्रभावित हुआ है, और इन व्याख्यानों के
माध्यम से उनकी स्मृति को श्रद्धांजलि देना एक बड़ी उपलब्धि है।
कुछ दूसरे संपर्क भी रहे हैं। पुस्तक के विभिन्न भाग भिन्न-भिन्न मगर संबद्ध विषयों पर दिए गए अन्य व्याख्यानों पर भी आधारित हैं। ये व्याख्यान दिल्ली स्कूल ऑफ इकानमिक्स (1986), टेक्सस विश्वविद्यालय (1986), कैब्रिज विश्वविद्यालय (मार्शल व्याख्यान, 1988), पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय (मोरियों ओ’ केली मैकके व्याख्यान, 1988) तथा लोवें स्थित सेंटर आपरेशंस रिसर्च एंड इकानोमोट्रिक्स (1898) में दिए थे। मैंने अनेक संबद्ध विषयों पर रायल इकानामिक सोसाइटी (वार्षिक व्याख्यान, 1988), इंटरनेशनल इकनामिक एसोसिएशन (अध्यक्षीय भाषण, 1989) और इंडियन इकानमिक एसोसिएशन (वार्षिक व्याख्यान, 1989) में भी व्याख्यान दिए हैं। इन अवसरों पर परिचर्चा के दौरान की गई टिप्पणियों और आलोचनाओं से भी मैंने काफी कुछ सीखा है।
कुछ दूसरे संपर्क भी रहे हैं। पुस्तक के विभिन्न भाग भिन्न-भिन्न मगर संबद्ध विषयों पर दिए गए अन्य व्याख्यानों पर भी आधारित हैं। ये व्याख्यान दिल्ली स्कूल ऑफ इकानमिक्स (1986), टेक्सस विश्वविद्यालय (1986), कैब्रिज विश्वविद्यालय (मार्शल व्याख्यान, 1988), पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय (मोरियों ओ’ केली मैकके व्याख्यान, 1988) तथा लोवें स्थित सेंटर आपरेशंस रिसर्च एंड इकानोमोट्रिक्स (1898) में दिए थे। मैंने अनेक संबद्ध विषयों पर रायल इकानामिक सोसाइटी (वार्षिक व्याख्यान, 1988), इंटरनेशनल इकनामिक एसोसिएशन (अध्यक्षीय भाषण, 1989) और इंडियन इकानमिक एसोसिएशन (वार्षिक व्याख्यान, 1989) में भी व्याख्यान दिए हैं। इन अवसरों पर परिचर्चा के दौरान की गई टिप्पणियों और आलोचनाओं से भी मैंने काफी कुछ सीखा है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book